‘डिजिटल इंडिया’ से ‘डिजिटल असमानता’ तक : क्या सबको मिल रहा है बराबरी का लाभ?

 डिजिटल इंडिया’ से डिजिटल असमानता तक : क्या सबको मिल रहा है बराबरी का लाभ?


             




डॉ. शैलेश शुक्ला

वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं

वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह

आशियाना, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

ईमेल पता : PoetShaielsh@gmail.com 

मो. : 9313053330, 8759411563


जब जुलाई 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'डिजिटल इंडियाका उद्घोष किया थातब देश ने उम्मीद की थी कि तकनीक के इस अभियान से गाँव-गाँवजन-जन तक समान अवसर पहुंचेगा। यह एक ऐसा सपना था जिसमें एक किसानएक छात्राएक मजदूरएक शिक्षक और एक बुजुर्गall would be equally empowered through a digital ecosystem. लेकिन आजएक दशक के करीब खड़े होकर यदि हम पीछे मुड़कर देखेंतो तस्वीर उतनी उजली नहीं दिखती जितनी प्रचारित की गई। डिजिटल इंडिया की रोशनी भले ही महानगरों में दमक रही होलेकिन उसी रोशनी की छाया में भारत का एक बड़ा हिस्सा डिजिटल अंधकार में डूबा हुआ है। सवाल यह नहीं है कि भारत डिजिटल हो रहा है या नहींसवाल यह है कि यह परिवर्तन सबको समान रूप से सशक्त बना रहा है या कुछ को और अधिक शक्तिशाली तथा अन्य को और भी वंचित?
                            

डिजिटल इंडिया का मूल उद्देश्य था  नागरिक सेवाओं की डिजिटल पहुंचडिजिटली साक्षर समाज का निर्माणइंटरनेट के माध्यम से शासन की पारदर्शिता और रोजगार के नए अवसरों का सृजन। इसमें भारतनेट परियोजनाडिजिटल लॉकरउमंग ऐपडिजीलॉकरडिजिटल भुगतानआधार आधारित सेवाएँ और ग्रामीण क्षेत्रों में CSC (कॉमन सर्विस सेंटरजैसे उपायों को बल मिला। भारत आज विश्व के सबसे बड़े डेटा उपभोक्ताओं में है। UPI ट्रांजैक्शन की संख्या प्रतिदिन करोड़ों में है। सरकारी सेवाओं की ऑनलाइन उपलब्धता भी बढ़ी है। लेकिन इन आँकड़ों के पीछे जो असली कहानी छुपी हैवह है 'डिजिटल डिवाइडयानी 'डिजिटल असमानताकी।

नेशनल सैंपल सर्वे (NSSO) के आंकड़ों के अनुसारग्रामीण भारत में मात्र 15% परिवारों के पास ही इंटरनेट की सुविधा है। इसके विपरीत शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 42% तक जाती है। लेकिन इंटरनेट सुविधा केवल मौजूद होना ही पर्याप्त नहींसवाल यह भी है कि क्या उपयोगकर्ता के पास आवश्यक डिवाइसडिजिटल साक्षरता और आर्थिक सामर्थ्य है कि वह उस सुविधा का सही उपयोग कर सके? 2021 में ऑक्सफैम इंडिया की एक रिपोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि केवल 8% ग्रामीण भारतीय ही डिजिटल सेवाओं का सुचारु उपयोग कर पाते हैं।

कोविड-19 महामारी के दौरान जब शिक्षण पूरी तरह से ऑनलाइन हो गयातब 'डिजिटल इंडियाके स्वप्न का कड़वा यथार्थ सामने आया। देश के लाखों छात्र ऐसे थे जो स्मार्टफोनलैपटॉप या इंटरनेट की अनुपलब्धता के कारण शिक्षा से वंचित रह गए। एक तरफ दिल्लीमुंबईचेन्नई जैसे शहरों में छात्र हाई-स्पीड इंटरनेट के साथ वर्चुअल क्लासेज़ से जुड़े रहेवहीं दूसरी तरफ बिहारझारखंडओडिशाउत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में विद्यार्थी रेडियो या ब्लैकबोर्ड तक सीमित रह गए। कई मामलों में एक ही घर में दो या तीन बच्चों को एक ही मोबाइल से पढ़ाई करनी पड़ी। क्या इसे हम 'डिजिटल समावेशीकरणकहेंगे या 'डिजिटल बहिष्करण'?

डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने रोजगार और व्यवसाय के नए आयाम खोल दिए हैंफ्रीलांसिंगऑनलाइन मार्केटप्लेसडिजिटल कंटेंटऐप्स और सोशल मीडिया आधारित आय। लेकिन ये अवसर केवल उन्हीं के लिए सुलभ हैं जिनके पास इंटरनेट की गतिडिवाइस की सुविधा और डिजिटल कौशल है। देश की बड़ी जनसंख्या अब भी पारंपरिक रोजगारों और श्रम आधारित कार्यों पर निर्भर है। जब मनरेगा जैसी योजनाएँ भी 'एप आधारित उपस्थितिपर केंद्रित हो जाती हैंतब एक अशिक्षित मज़दूर या तकनीकी जानकारी से वंचित महिला कैसे अपने अधिकारों को हासिल कर पाएगीसरकार के डिजिटल पोर्टल्स का जाल अगर स्थानीय भाषातकनीकी सहायता और यूज़र फ्रेंडली सिस्टम के अभाव में हैतो यह सुविधा नहींबल्कि बाधा बन जाती है।

डिजिटल इंडिया का एक और अंधकारमय पहलू हैभाषायी और वर्गीय असमानता। भारत में अधिकांश डिजिटल सामग्री अंग्रेज़ी और कुछ चुनिंदा भारतीय भाषाओं तक ही सीमित है। हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी प्रशासनिक ऐप्स अंग्रेज़ी-प्रधान हैंजिससे स्थानीय उपयोगकर्ताओं को कठिनाई होती है। डिजिटल असमानता केवल इंटरनेट की अनुपलब्धता तक सीमित नहींबल्कि यह एक सांस्कृतिक और वर्ग आधारित समस्या भी बन चुकी है। एक ओर तकनीकी कंपनियों के पास बहुभाषीय सॉफ्टवेयर की क्षमता हैदूसरी ओर सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन भाषा और डिजिटल समावेशन को दरकिनार करता नजर आता है।

 

सरकार ने डिजिटल समावेशन (Digital Inclusion) को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनाएं चलाई हैंजैसे 'प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान' (PMGDISHA), 'भारतनेटके तहत गाँवों में फाइबर नेटवर्क बिछाने का कार्य, CSC के माध्यम से ग्राम स्तरीय सेवाएं प्रदान करने का प्रयास और युवाओं के लिए कोडिंग-प्रशिक्षण की पहलें। इन योजनाओं का उद्देश्य हर नागरिक तक तकनीक की पहुँच और उसका न्यायसंगत लाभ पहुंचाना रहा है। लेकिन ये प्रयास अक्सर भ्रष्टाचारअव्यवस्थास्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण की कमी और संसाधनों की असमान उपलब्धता के कारण विफल होते रहे हैं। उदाहरण के तौर परकई गाँवों में CSC सेंटर केवल कागज़ों पर ही संचालित हैंया उन्हें प्रभावी प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता नहीं मिलतीजिससे वे जनता तक सेवाएं पहुंचाने में अक्षम हो जाते हैं।

दूसरी ओरभारतनेट की परियोजना कई बार समयसीमा से पीछे रह गई है। वर्ष 2023 के अंत तक देश के सभी 2.5 लाख ग्राम पंचायतों तक ऑप्टिकल फाइबर पहुँचाने का लक्ष्य निर्धारित थालेकिन सरकार की ही रिपोर्ट के अनुसार 50% से कम पंचायतें पूरी तरह कनेक्ट हो सकीं। कहीं तकनीकी बाधाएं थींकहीं ठेकेदारों की उदासीनतातो कहीं प्रशासनिक ढीलापन। ऐसे में डिजिटल इंडिया का ढांचा अधूरा रह जाता है और जो सपना समान अवसरों का थावह वर्गभेद और क्षेत्रभेद के गड्ढों में गिरता चला जाता है।

तकनीक कोई जादू की छड़ी नहीं है और ना ही यह अपने आप समावेशी बन जाती है। उसे समावेशी बनाने के लिए नीतिगत प्रतिबद्धतासामाजिक-सांस्कृतिक समझ और जमीनी हकीकत से मेल खाते उपायों की ज़रूरत होती है। डिजिटल इंडिया की सबसे बड़ी विफलता यही है कि इसमें तकनीक को उद्देश्य मान लिया गयासाधन नहीं। उदाहरण के लिएजब बायोमेट्रिक आधारित राशन वितरण प्रणाली (AePS और Aadhaar Authenticated Ration System) शुरू की गईतब लाखों लोगों को राशन इसलिए नहीं मिल पाया क्योंकि उनके अंगूठे की स्कैनिंग विफल हो गई या नेटवर्क उपलब्ध नहीं था। राजस्थानझारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में ऐसे दर्जनों मामले दर्ज किए गए हैं जहाँ तकनीकी विफलताओं के कारण गरीबों को भूखा रहना पड़ा। यह डिजिटल असमानता नहींबल्कि डिजिटल अन्याय की स्थिति है।

इन विफलताओं का सबसे बड़ा प्रभाव उन समुदायों पर पड़ता है जो पहले से ही सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित हैंआदिवासीदलितमहिलाएंअशिक्षित जनसंख्या और ग्रामीण मजदूर वर्ग। जब सरकार सारी सेवाएं 'डिजिटल-फर्स्टकर देती है और ऑनग्राउंड विकल्पों को समाप्त कर देती हैतो यह वंचित वर्गों को और भी पीछे धकेल देता है। इस सूरत में तकनीक सशक्तिकरण का नहींबल्कि दमन और वंचना का माध्यम बन जाती है।

आज भारत वास्तव में दो डिजिटल देशों में विभाजित है। एक ओर वे महानगरीय केंद्र हैं जहाँ युवा हाई-स्पीड इंटरनेट पर स्टार्टअप चला रहे हैंडिज़ाइनिंगप्रोग्रामिंगएनएफटी और एआई जैसे आधुनिक क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओरएक ग्रामीण भारत है जहाँ लोगों को बैंक खाता देखने के लिए 15 किलोमीटर दूर साइबर कैफे जाना पड़ता हैजहाँ किसान के पास इतना डाटा नहीं कि वह मौसम की सटीक जानकारी ले सके और जहाँ एक माँ अपने बच्चे का आधार नंबर लिंक नहीं करवा पाती क्योंकि CSC सेंटर हफ्तों से बंद है। यह डिजिटल असमानता केवल तकनीकी या आर्थिक नहींबल्कि एक मनोवैज्ञानिक असमानता भी हैजिसमें वंचित वर्ग को बार-बार यह आभास होता है कि यह नया भारत उसके लिए नहीं बना है।

यदि वास्तव में भारत को एक समावेशी डिजिटल राष्ट्र बनाना हैतो कुछ बुनियादी सुधारों की आवश्यकता है। सबसे पहलेडिजिटल शिक्षा को प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक एक अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिएताकि बच्चों को शुरू से ही तकनीक की समझ हो और वे महज़ उपभोक्ता नहींनिर्माता बन सकें। दूसरासरकार को डिजिटल सेवाओं में multi-lingual interface देना चाहिए ताकि हर नागरिक अपनी मातृभाषा में सेवाओं का उपयोग कर सके। तीसराग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की गतिबिजली की उपलब्धता और डिजिटल डिवाइस की सब्सिडी जैसे उपायों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। चौथामहिला डिजिटल साक्षरता को स्वतंत्र रूप से बढ़ावा देना होगाक्योंकि घरों में अक्सर तकनीकी संसाधनों तक महिलाओं की पहुँच सीमित रहती है।

पाँचवाँ और सबसे ज़रूरीयह आवश्यक है कि किसी भी डिजिटल योजना के साथ ऑफलाइन विकल्प भी हमेशा मौजूद रहेंताकि जो लोग तकनीक से दूर हैंउन्हें अपने अधिकारों से वंचित  होना पड़े। उदाहरणस्वरूपयदि किसी बुज़ुर्ग को डिजिटल हेल्थ कार्ड नहीं मिला हैतो उसका उपचार रुकना नहीं चाहिए।

डिजिटल इंडिया एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना हैलेकिन इसका मूल्यांकन केवल एप्सट्रांजैक्शन और ऑप्टिकल फाइबर से नहीं होना चाहिएबल्कि इससे इस बात को आँकना चाहिए कि क्या यह वास्तव में उस गरीब महिलाउस किसानउस मजदूर और उस छोटे दुकानदार के जीवन को बेहतर बना पाया या नहीं। यदि डिजिटल तकनीक केवल अमीरों की सहूलियत और कंपनियों के विस्तार का माध्यम बन जाए और गरीबों के लिए यह और भी जटिलता और वंचना पैदा करेतो यह  केवल असफलता हैबल्कि लोकतंत्र के मूल मूल्य  समानता और न्याय  का उल्लंघन भी है।

डिजिटल इंडिया का सपना तभी पूरा होगा जब इसके लाभ केवल दिल्ली और मुंबई के एयरकंडीशन्ड ऑफिसों तक सीमित  रह जाएँबल्कि उत्तराखंड के पहाड़ोंझारखंड के जंगलों और बुंदेलखंड के सूखे गाँवों तक उसी ताकत और अधिकार से पहुँचें। तकनीक एक साधन हैउद्देश्य नहीं। यदि यह साधन न्याय और समानता के मार्ग पर नहीं ले जातातो फिर उसे 'विकासकहना स्वयं एक छलावा बन जाता है।

 

‘डिजिटल इंडिया’ से ‘डिजिटल असमानता’ तक : क्या सबको मिल रहा है बराबरी का लाभ?

डॉ. शैलेश शुक्ला

वरिष्ठ लेखक, पत्रकार, साहित्यकार एवं

वैश्विक समूह संपादक, सृजन संसार अंतरराष्ट्रीय पत्रिका समूह

आशियाना, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

ईमेल पता : PoetShaielsh@gmail.com 

मो. : 9313053330, 8759411563


जब 1 जुलाई 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'डिजिटल इंडिया' का उद्घोष किया था, तब देश ने उम्मीद की थी कि तकनीक के इस अभियान से गाँव-गाँव, जन-जन तक समान अवसर पहुंचेगा। यह एक ऐसा सपना था जिसमें एक किसान, एक छात्रा, एक मजदूर, एक शिक्षक और एक बुजुर्ग—all would be equally empowered through a digital ecosystem. लेकिन आज, एक दशक के करीब खड़े होकर यदि हम पीछे मुड़कर देखें, तो तस्वीर उतनी उजली नहीं दिखती जितनी प्रचारित की गई। डिजिटल इंडिया की रोशनी भले ही महानगरों में दमक रही हो, लेकिन उसी रोशनी की छाया में भारत का एक बड़ा हिस्सा डिजिटल अंधकार में डूबा हुआ है। सवाल यह नहीं है कि भारत डिजिटल हो रहा है या नहीं; सवाल यह है कि यह परिवर्तन सबको समान रूप से सशक्त बना रहा है या कुछ को और अधिक शक्तिशाली तथा अन्य को और भी वंचित?

डिजिटल इंडिया का मूल उद्देश्य था – नागरिक सेवाओं की डिजिटल पहुंच, डिजिटली साक्षर समाज का निर्माण, इंटरनेट के माध्यम से शासन की पारदर्शिता और रोजगार के नए अवसरों का सृजन। इसमें भारतनेट परियोजना, डिजिटल लॉकर, उमंग ऐप, डिजीलॉकर, डिजिटल भुगतान, आधार आधारित सेवाएँ और ग्रामीण क्षेत्रों में CSC (कॉमन सर्विस सेंटर) जैसे उपायों को बल मिला। भारत आज विश्व के सबसे बड़े डेटा उपभोक्ताओं में है। UPI ट्रांजैक्शन की संख्या प्रतिदिन करोड़ों में है। सरकारी सेवाओं की ऑनलाइन उपलब्धता भी बढ़ी है। लेकिन इन आँकड़ों के पीछे जो असली कहानी छुपी है, वह है 'डिजिटल डिवाइड' यानी 'डिजिटल असमानता' की।

नेशनल सैंपल सर्वे (NSSO) के आंकड़ों के अनुसार, ग्रामीण भारत में मात्र 15% परिवारों के पास ही इंटरनेट की सुविधा है। इसके विपरीत शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 42% तक जाती है। लेकिन इंटरनेट सुविधा केवल मौजूद होना ही पर्याप्त नहीं; सवाल यह भी है कि क्या उपयोगकर्ता के पास आवश्यक डिवाइस, डिजिटल साक्षरता और आर्थिक सामर्थ्य है कि वह उस सुविधा का सही उपयोग कर सके? 2021 में ऑक्सफैम इंडिया की एक रिपोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि केवल 8% ग्रामीण भारतीय ही डिजिटल सेवाओं का सुचारु उपयोग कर पाते हैं।

कोविड-19 महामारी के दौरान जब शिक्षण पूरी तरह से ऑनलाइन हो गया, तब 'डिजिटल इंडिया' के स्वप्न का कड़वा यथार्थ सामने आया। देश के लाखों छात्र ऐसे थे जो स्मार्टफोन, लैपटॉप या इंटरनेट की अनुपलब्धता के कारण शिक्षा से वंचित रह गए। एक तरफ दिल्ली, मुंबई, चेन्नई जैसे शहरों में छात्र हाई-स्पीड इंटरनेट के साथ वर्चुअल क्लासेज़ से जुड़े रहे, वहीं दूसरी तरफ बिहार, झारखंड, ओडिशा, उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में विद्यार्थी रेडियो या ब्लैकबोर्ड तक सीमित रह गए। कई मामलों में एक ही घर में दो या तीन बच्चों को एक ही मोबाइल से पढ़ाई करनी पड़ी। क्या इसे हम 'डिजिटल समावेशीकरण' कहेंगे या 'डिजिटल बहिष्करण'?

डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने रोजगार और व्यवसाय के नए आयाम खोल दिए हैं—फ्रीलांसिंग, ऑनलाइन मार्केटप्लेस, डिजिटल कंटेंट, ऐप्स और सोशल मीडिया आधारित आय। लेकिन ये अवसर केवल उन्हीं के लिए सुलभ हैं जिनके पास इंटरनेट की गति, डिवाइस की सुविधा और डिजिटल कौशल है। देश की बड़ी जनसंख्या अब भी पारंपरिक रोजगारों और श्रम आधारित कार्यों पर निर्भर है। जब मनरेगा जैसी योजनाएँ भी 'एप आधारित उपस्थिति' पर केंद्रित हो जाती हैं, तब एक अशिक्षित मज़दूर या तकनीकी जानकारी से वंचित महिला कैसे अपने अधिकारों को हासिल कर पाएगी? सरकार के डिजिटल पोर्टल्स का जाल अगर स्थानीय भाषा, तकनीकी सहायता और यूज़र फ्रेंडली सिस्टम के अभाव में है, तो यह सुविधा नहीं, बल्कि बाधा बन जाती है।

डिजिटल इंडिया का एक और अंधकारमय पहलू है—भाषायी और वर्गीय असमानता। भारत में अधिकांश डिजिटल सामग्री अंग्रेज़ी और कुछ चुनिंदा भारतीय भाषाओं तक ही सीमित है। हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी प्रशासनिक ऐप्स अंग्रेज़ी-प्रधान हैं, जिससे स्थानीय उपयोगकर्ताओं को कठिनाई होती है। डिजिटल असमानता केवल इंटरनेट की अनुपलब्धता तक सीमित नहीं, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और वर्ग आधारित समस्या भी बन चुकी है। एक ओर तकनीकी कंपनियों के पास बहुभाषीय सॉफ्टवेयर की क्षमता है, दूसरी ओर सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन भाषा और डिजिटल समावेशन को दरकिनार करता नजर आता है।

 

सरकार ने डिजिटल समावेशन (Digital Inclusion) को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनाएं चलाई हैं—जैसे 'प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान' (PMGDISHA), 'भारतनेट' के तहत गाँवों में फाइबर नेटवर्क बिछाने का कार्य, CSC के माध्यम से ग्राम स्तरीय सेवाएं प्रदान करने का प्रयास और युवाओं के लिए कोडिंग-प्रशिक्षण की पहलें। इन योजनाओं का उद्देश्य हर नागरिक तक तकनीक की पहुँच और उसका न्यायसंगत लाभ पहुंचाना रहा है। लेकिन ये प्रयास अक्सर भ्रष्टाचार, अव्यवस्था, स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण की कमी और संसाधनों की असमान उपलब्धता के कारण विफल होते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, कई गाँवों में CSC सेंटर केवल कागज़ों पर ही संचालित हैं, या उन्हें प्रभावी प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता नहीं मिलती, जिससे वे जनता तक सेवाएं पहुंचाने में अक्षम हो जाते हैं।

दूसरी ओर, भारतनेट की परियोजना कई बार समयसीमा से पीछे रह गई है। वर्ष 2023 के अंत तक देश के सभी 2.5 लाख ग्राम पंचायतों तक ऑप्टिकल फाइबर पहुँचाने का लक्ष्य निर्धारित था, लेकिन सरकार की ही रिपोर्ट के अनुसार 50% से कम पंचायतें पूरी तरह कनेक्ट हो सकीं। कहीं तकनीकी बाधाएं थीं, कहीं ठेकेदारों की उदासीनता, तो कहीं प्रशासनिक ढीलापन। ऐसे में डिजिटल इंडिया का ढांचा अधूरा रह जाता है और जो सपना समान अवसरों का था, वह वर्गभेद और क्षेत्रभेद के गड्ढों में गिरता चला जाता है।

तकनीक कोई जादू की छड़ी नहीं है और ना ही यह अपने आप समावेशी बन जाती है। उसे समावेशी बनाने के लिए नीतिगत प्रतिबद्धता, सामाजिक-सांस्कृतिक समझ और जमीनी हकीकत से मेल खाते उपायों की ज़रूरत होती है। डिजिटल इंडिया की सबसे बड़ी विफलता यही है कि इसमें तकनीक को उद्देश्य मान लिया गया, साधन नहीं। उदाहरण के लिए, जब बायोमेट्रिक आधारित राशन वितरण प्रणाली (AePS और Aadhaar Authenticated Ration System) शुरू की गई, तब लाखों लोगों को राशन इसलिए नहीं मिल पाया क्योंकि उनके अंगूठे की स्कैनिंग विफल हो गई या नेटवर्क उपलब्ध नहीं था। राजस्थान, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में ऐसे दर्जनों मामले दर्ज किए गए हैं जहाँ तकनीकी विफलताओं के कारण गरीबों को भूखा रहना पड़ा। यह डिजिटल असमानता नहीं, बल्कि डिजिटल अन्याय की स्थिति है।

इन विफलताओं का सबसे बड़ा प्रभाव उन समुदायों पर पड़ता है जो पहले से ही सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित हैं—आदिवासी, दलित, महिलाएं, अशिक्षित जनसंख्या और ग्रामीण मजदूर वर्ग। जब सरकार सारी सेवाएं 'डिजिटल-फर्स्ट' कर देती है और ऑनग्राउंड विकल्पों को समाप्त कर देती है, तो यह वंचित वर्गों को और भी पीछे धकेल देता है। इस सूरत में तकनीक सशक्तिकरण का नहीं, बल्कि दमन और वंचना का माध्यम बन जाती है।

आज भारत वास्तव में दो डिजिटल देशों में विभाजित है। एक ओर वे महानगरीय केंद्र हैं जहाँ युवा हाई-स्पीड इंटरनेट पर स्टार्टअप चला रहे हैं, डिज़ाइनिंग, प्रोग्रामिंग, एनएफटी और एआई जैसे आधुनिक क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, एक ग्रामीण भारत है जहाँ लोगों को बैंक खाता देखने के लिए 15 किलोमीटर दूर साइबर कैफे जाना पड़ता है, जहाँ किसान के पास इतना डाटा नहीं कि वह मौसम की सटीक जानकारी ले सके और जहाँ एक माँ अपने बच्चे का आधार नंबर लिंक नहीं करवा पाती क्योंकि CSC सेंटर हफ्तों से बंद है। यह डिजिटल असमानता केवल तकनीकी या आर्थिक नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक असमानता भी है—जिसमें वंचित वर्ग को बार-बार यह आभास होता है कि यह नया भारत उसके लिए नहीं बना है।

यदि वास्तव में भारत को एक समावेशी डिजिटल राष्ट्र बनाना है, तो कुछ बुनियादी सुधारों की आवश्यकता है। सबसे पहले, डिजिटल शिक्षा को प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक एक अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए—ताकि बच्चों को शुरू से ही तकनीक की समझ हो और वे महज़ उपभोक्ता नहीं, निर्माता बन सकें। दूसरा, सरकार को डिजिटल सेवाओं में multi-lingual interface देना चाहिए ताकि हर नागरिक अपनी मातृभाषा में सेवाओं का उपयोग कर सके। तीसरा, ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की गति, बिजली की उपलब्धता और डिजिटल डिवाइस की सब्सिडी जैसे उपायों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। चौथा, महिला डिजिटल साक्षरता को स्वतंत्र रूप से बढ़ावा देना होगा, क्योंकि घरों में अक्सर तकनीकी संसाधनों तक महिलाओं की पहुँच सीमित रहती है।

पाँचवाँ और सबसे ज़रूरी, यह आवश्यक है कि किसी भी डिजिटल योजना के साथ ऑफलाइन विकल्प भी हमेशा मौजूद रहें—ताकि जो लोग तकनीक से दूर हैं, उन्हें अपने अधिकारों से वंचित न होना पड़े। उदाहरणस्वरूप, यदि किसी बुज़ुर्ग को डिजिटल हेल्थ कार्ड नहीं मिला है, तो उसका उपचार रुकना नहीं चाहिए।

डिजिटल इंडिया एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना है, लेकिन इसका मूल्यांकन केवल एप्स, ट्रांजैक्शन और ऑप्टिकल फाइबर से नहीं होना चाहिए, बल्कि इससे इस बात को आँकना चाहिए कि क्या यह वास्तव में उस गरीब महिला, उस किसान, उस मजदूर और उस छोटे दुकानदार के जीवन को बेहतर बना पाया या नहीं। यदि डिजिटल तकनीक केवल अमीरों की सहूलियत और कंपनियों के विस्तार का माध्यम बन जाए और गरीबों के लिए यह और भी जटिलता और वंचना पैदा करे, तो यह न केवल असफलता है, बल्कि लोकतंत्र के मूल मूल्य – समानता और न्याय – का उल्लंघन भी है।

डिजिटल इंडिया का सपना तभी पूरा होगा जब इसके लाभ केवल दिल्ली और मुंबई के एयरकंडीशन्ड ऑफिसों तक सीमित न रह जाएँ, बल्कि उत्तराखंड के पहाड़ों, झारखंड के जंगलों और बुंदेलखंड के सूखे गाँवों तक उसी ताकत और अधिकार से पहुँचें। तकनीक एक साधन है, उद्देश्य नहीं। यदि यह साधन न्याय और समानता के मार्ग पर नहीं ले जाता, तो फिर उसे 'विकास' कहना स्वयं एक छलावा बन जाता है।

 

लेख मे लेखक के निजी विचार है. 


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