“रस की सही व्याख्या आज भी शेष है" : नन्दकिशोर अचार्य
नई दिल्ली: दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में चल रहे डॉ. नागेन्द्र स्मृति व्याख्यान के आयोजन के दूसरे और अंतिम दिन तारसप्तक के प्रमुख कवि और चिंतक नन्दकिशोर आचार्य ने मुख्य व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारतीय काव्यशास्त्र में रस की अवधारणा आज भी पूरी तरह व्याख्यायित नहीं हो सकी है। उन्होंने कहा कि परंपरा में रस को ब्रह्म का सहोदर माना गया है, किंतु दोनों का एक होना संभव नहीं है। आगे उन्होंने कहा कि रस एक नैतिक प्रत्यय है और नैतिकता का अर्थ है एक-दूसरे को बराबर मानना तथा स्वीकार करना। यही स्वीकार रस का मूल है।विज्ञान और दर्शन हर कार्य को विषय मानते हैं और वे किसी भी क्रिया के पीछे तर्क और कारण खोजते हैं, किंतु कला की दुनिया इससे भिन्न है। कला में विषय मात्र साधन होता है, लक्ष्य नहीं। कला का मूल सिद्धांत आनंद है और रस की बुनियादी शर्त भी यही है। मनुष्य का सार तत्व सृजनात्मकता है और इसी प्रक्रिया में कभी-कभी भटकाव भी संभव है। कला और ध्यान को आपस में जोड़ा जा सकता है लेकिन रस को केवल शास्त्रीय व्याख्या या सिद्धांतों के आधार पर समझना अधूरा होगा। रस अनुभव की गहराई से जुड़ा है और यदि हम उसे केवल ग्रंथों या शास्त्रों में खोजेंगे तो उसका वास्तविक स्वरूप सामने नहीं आएगा। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि प्रो रंजन त्रिपाठी ने कवि और ब्रह्मा की सृष्टि के अंतर पर बोलते हुए कहा कि जहाँ पुष्प होगा वहाँ सौरभ होगा।यह ब्रह्मा की सृष्टि का नियम है,किंतु कवि की सृष्टि किसी बंधन से मुक्त होती है। कवि वहाँ भी सौरभ रच सकता है जहाँ पुष्प न हो। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि रस की परंपरा का संबंध कामशास्त्र से माना गया है और डॉ. नागेन्द्र स्वयं इस मत के पक्षधर थे कि रस का आरंभिक स्वरूप कामशास्त्र से विकसित हुआ और बाद में भारतीय काव्यशास्त्र ने इसे एक सौंदर्यशास्त्रीय आधार प्रदान किया। कार्यक्रम का समापन इस विचार के साथ हुआ कि रस की अवधारणा केवल शास्त्र और सिद्धांतों की चर्चा तक सीमित नहीं है। यह मानव की गहन अनुभूति, संवेदनशीलता और सृजनात्मकता से जुड़ी हुई है। कला और साहित्य तभी सार्थक हैं जब वे रस का अनुभव कराएँ और मनुष्य को भीतर से आनंदित करें। डॉ. नागेन्द्र स्मृति व्याख्यान का आयोजन साहित्यिक विमर्श की उस परंपरा को जीवित रखने का प्रयास है जिसे डॉ. नागेन्द्र ने अपने आलोचनात्मक लेखन और गहन अध्ययनों से स्थापित किया था। नन्द किशोर आचार्य और डॉ. त्रिपाठी के विचारों ने यह स्पष्ट किया कि रस की अवधारणा आज भी भारतीय साहित्यिक विमर्श का केंद्रीय प्रश्न है और उस पर गहन चिंतन की आवश्यकता बनी हुई है। कार्यक्रम मे हिन्दी विभाग के विद्यार्थी,शोधार्थी और शिक्षक मौजूद रहें। कार्यक्रम की शुरुआत में प्रो आशुतोष कुमार ने स्वागत वक्तव्य दिया और प्रो संजय कुमार ने विशिष्ट टिप्पणी प्रस्तुत की। दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों से आए शिक्षको ने कार्यक्रम आयोजन पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि इस तरह के कार्यक्रम के आयोजन से शिक्षको के साथ शोधार्थी और विद्यार्थी सभी लाभान्वित होंगे और इस कार्यक्रम के साथ विभाग द्वारा साहित्यिक आयोजनों की जो परंपरा पीछे छूट गई थी वह फिर शुरू हो जाएगी। उम्मीद है इस तरह के आयोजन अब निरंतर देखने को मिलेंगे। इसके लिए विभाग और विभागाध्यक्ष दोनो को बधाई।