कांग्रेस का आगे क्या होगा!..
H.L.DUSADH
जहां तक भविष्य की राजनीति का सवाल है जिस तरह कांग्रेस पार्टी ने अपनी पूरी राजनीति सामाजिक न्याय पर केंद्रित की है ,उससे आने वाले दिनों में ब्राह्मणों को छोड़कर उसके कोर वोटर: दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक एक बार फिर नए उत्साह से उसके साथ जुड़ेंगे । ब्राह्मणों की जगह पिछड़े भी उसके साथ लामबंद होंगे। फलतः इसका नए सिरे भारतीय राजनीति पर उसी तरह वर्चस्व स्थापित होगा, जैसा आजादी के बाद के दशकों में हुआ। यह वर्चस्व लम्बा इसलिए खींचेगा क्योंकि कांग्रेस की सामाजिक न्यायवादी राजनीति तबतक सर्वशक्ति से क्रियाशील रहेंगी जबतक हिन्दू धर्म के जन्मजात वंचित तबकों की कंपनियों, शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों, मीडिया, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी इत्यादि हर जगह में वाजिब हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं हो जाती । चूंकि ऐसा होने में समय लगेगा, इसलिए वंचित उसे लंबे समय तक सत्ता में बने रहने का अवसर देते रह सकते हैं।इस चुनाव के शेष होते-होते जो राहुल गांधी प्रधानमंत्री के रूप मे जनता की पसंद के मामले में मोदी को पछाड़ चुके है, वह कर्नाटक के बाद इस चुनाव में पार्टी की सफलता से उत्साहित होकर कांग्रेस मे घोषणापत्र में आए सामाजिक न्याय के एजेंडे को एक-एक व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए देश के चप्पे – चप्पे को नापेंगे। इससे स्वतंत्र बहुजन राजनीति का उभार बाधित होगा और एमके स्टालिन ,अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन इत्यादि सहित बाकी सामाजिक न्यायवादी नेता कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता मे भागीदारी की दिशा में आगे बढ़ेंगे।मायावती भी अपनी पार्टी का वजूद बचाने के लिए कांग्रेस के साथ जुड़ने के लिए बाध्य हो सकती हैं । कुल मिलाकर आने वाले वर्षों में राहुल गांधी के नेतृत्व में देश में आर्थिक- सामाजिक क्रांति घटित होने जा रही है। चूंकि यह परीक्षित सच्चाई है कि क्रांति के साथ प्रतिक्रांति भी होती है, इसलिए आने वाले दिनों में भारत में प्रतिक्रांति भी होगी, जिसका नेतृत्व करेगी भाजपा!
क्रांतियों का इतिहास बताता है कि जब क्रांतिकारी परिवर्तन के हालात बनते हैं तो मौजूद वयवस्था से लाभान्वित तबका उस पर रोक लगाने के लिए लामबंद होता है। ऐसा तबका नितांत रूप से रूढ़िवादी होता है और यथास्थितिवाद को बनाये रखने के लिए यह धर्म और परंपराओं को हथियार बनाता है। भारत में भाजपा इसकी मिसाल कायम कर चुकी है! 7 अगस्त , 1990 को प्रकाशित मण्डल रिपोर्ट के जरिए जब वर्ण-व्यवस्था के वंचितों- दलित, आदिवासी और पिछड़ों- के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव के हालात बने, वह रांमजन्मभूमि मुक्ति के नाम पर धर्म और परंपराओं को बचाने का आंदोलन छेड़ दी, जिसमें उसके संगी बने सुविधाभोगी वर्ग के छात्र और उनके अभिभावक, लाखों साधु-संत, लेखक- पत्रकार और धन्ना सेठ। उसी आंदोलन के जोर से वह न सिर्फ सत्ता पर काबिज होकर अप्रतिरोध्य बनी, बल्कि उससे मिली राजसत्ता का इस्तेमाल उसने दलित- बहुजनों को उस स्टेज में पहुंचाने में किया, जिसमें बने रहने का निदेश हिन्दू धर्मशास्त्र देते हैं। तो मण्डल उत्तरकाल में प्रतिक्रांति के जोर से सत्ता पर एकाधिकार का भोग कर चुकी भाजपा आने वाले दिनों में राहुल के अभियान के खिलाफ फिर से धर्माधारित आंदोलन खड़ा करने की दिशा में अग्रसर हो सकती है , जिसमें उसके संगी बन सकते है केजरीवाल, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक इत्यादि जैसे तमाम सवर्ण नेता! इस क्रम में भाजपा अयोध्या के बाद काशी- मथुरा सहित गुलामी के अन्य प्रतीकों की मुक्ति का आंदोलन छेड़ने के दिशा में आगे बढ़ सकती है, लेकिन वह सफल नहीं होगी। जिस तरह इस चुनाव में कांग्रेस के सामाजिक न्यायवादी घोषणापत्र के समक्ष नरेंद्र मोदी उद्भ्रांत हुए हैं, आगे भी वही होगा।
बहरहाल आने वाले दिनों में जिस तरह सामाजिक न्याय की राजनीति के जोर से कांग्रेस का वर्चस्व स्थापित होने जा रहा है, वह तभी सफलीभूत होगा जब वह अपने संगठन को सवर्ण वर्चस्व से मुक्त करें। उसके संगठन मे प्रदेश से लेकर जिले तक सवर्ण छाए हुए हैं। इस चुनाव में उस का घोषणापत्र जारी होने के बाद उनके अंदर का क्रियाशील प्रतिक्रियावादी तत्व पूरी तरह सक्रिय हो गया और उन्होंने इसके कंटेन्ट को जनता तक पहुचाने में नहीं के बराबर रुचि लिया। अगर कांग्रेस का प्रदेश और जिला नेतृत्व कांग्रेस के घोषणापत्र के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने में 50 प्रतिशत भी रुचि लिया होता, चुनाव परिणाम कुछ और होता। चुनाव के दौरान जो ढेरों सवर्ण नेता भाजपा में शामिल होकर पार्टी का मनोबल तोड़ने का काम किए , उसके पृष्ठ में उनके अंदर क्रियाशील प्रतिक्रियावादीवादी तत्व ही मुख्य रूप से जिम्मेवार रहा। आने वाले दिनों में राहुल गांधी जिस एजेंडे को लेकर आगे बढ़ने जा रहे हैं, उसमें न्यायप्रिय व विवेकवान सवर्ण नेता ही पार्टी का साथ दें सकते हैं और ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम है । ऐसे में राहुल गांधी यदि सामाजिक न्याय की राजनीति की जोर से महात्मा गांधी, आंबेडकर, नेहरू इत्यादि के समतामूलक भारत निर्माण के सपनों को आकार देना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले कांग्रेस संगठन में ‘जितनी आबादी- उतना हक’ का सिद्धांत लागू करना होगा!