रामदरश जी खरे और साबुत साहित्यकार है ।


कबीर की मानवता, केदार की मिट्टी की खुशबू को सिरज़ता, कृत्रिमता से दूर नागार्जुन की तरह बतियाने वाले कवि है : रामदरश मिश्र

                       


              कबीर की मानवता, केदार की मिट्टी की खुशबू को सिरज़ता, कृत्रिमता से दूर नागार्जुन की तरह बतियाने वाले कवि है रामदरश मिश्र । उनकी कविता को पढ कर आप अतिरिक्त महसूस नहीं करते, रिक्त महसूस करते हैं। टटोलने को मजबूर होते हैं कि अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है । उनकी कविता कबीर की भांति प्रश्न पूछती है । वो आपको बेचैन करती है। बार बार पढने को मजबूर करती हैं। प्रकाश मनु के शब्दों में कहे तो"यह दीगर बात है कि उन्हें कभी 'आंचलिक' कह दिया गया, कभी 'ग्रामीण संवेदना का लेखक' कहा गया, कभी 'सचेतन' के खाते में डालते की आधी-अधूरी और कोशिशें हुई. मगर नहीं, ये सारी कोशिशें फिजूल साबित हुईं. इसलिए कि वे इस सबसे बड़े हैं और तमाम सीमाओं को बार-बार तोड़कर बाहर निकल आते हैं-जैसे जिंदगी, जैसे मनुष्य."लेकिन देखा जाए तो रामदरश जी खरे और साबुत साहित्यकार है ।

                                      

                


 मैं चमत्कारी नहीं, मेरी मेधा चमत्कारी नहीं,मैं केवल गाँव नहीं ,मैं केवल शहर नहीं , मैं केवल लहर नहीं , मैं केवल धार नहीं , मैं केवल तलवार नहीं, मैं केवल जीवन हूँ जो जिया गया और जो जिया जा रहा है ।  रामदरश मिश्र जी का साहित्य जीवन गाथा है जिसे उन्होने साहित्य की लाभग विधाओं में बांधा है । उनका साहित्य उनके अध्येता को  किसी एक जगह ठहरने नहीं देता, उसकी सोच को बरगद के नीचे उगने वाले वृक्षों के सामान संकुचित नहीं करती बल्कि कचनार की तरह खिलने का मौका देता  है ।  रामदरश जी की साहित्यिक यात्रा से गुजरते हुये हम जीवन के विभिन्न बिंबों से गुजरते हैं । ये विम्ब कोरी लफ़्फ़्वाजी नहीं वाजिब सवाल- जावाबी भी है । उनकी यात्रा लंबी है लेकिन किसी जल्दबाजी में नहीं दिखते हैं । उनके साहित्य में रात भी धीरे-धीरे उतरती है और दिन भी धीरे –धीरे पसरता है । उनकी कविता  “ बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे। किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे-धीरे । जहाँ आप पहुँचे छ्लांगे लगाकर,वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे । पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी, उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे,” उनके जीवन के अगाध धैर्य का उदाहरण हैं । उनको कोई जल्दी नहीं वो  सफर पर केवल एक साधारण यात्री की तरह दो जोड़ी समान के साथ नहीं निकलते हैं । निकलते  हैं तो अपने साथ खेत- खलिहान, हँसुआ-खुरपिया,गीत-संगीत,कलम,किताब ,अंधेरा उजाला, वेदना-संवेदना  सब लेकर निकलते हैं ,लेकिन बोझिल नहीं होते , यात्रा का आनंद लेते हैं ।  वरिष्ठ गीतकार ओम निश्चल ने कहा कि सौ वर्ष की उम्र में भी प्रो. रामदरश मिश्र निरंतर साहित्य की सेवा में लगे हुए हैं । उन्होंने अपनी साहित्य लेखन यात्रा ‘पथ के गीत’ से आरम्भ की थी । गाँव की मिट्टी से बना उनका लोकमन इस समूची यात्रा में न तो आधुनिक हुआ न कृत्रिम आधुनिक चमक से चमत्कृत हुआ न किसी अनुभूत आयातित वाद के दवाब में आया है । आज का विस्तृत परिवेश उनको इतना परभावित नहीं करता जितना डुमरी गाँव।  दिल्ली में गाँव लिए हुये कविता उनके भीतर गाँव बसे गाँव की कहानी कहने को काफी है । तेरा दोस्त तो गाँव को भूलकर/महानगरी फार्मूलों के सहारे/अंतरराष्ट्रीय हो गया/और तू अभी भी/दिल्ली में गाँव लिये बैठा हुआ है । उनको जब भी गहरी थाह लेनी होती ,जब भी उन्हें किसी चीज की पड्ताल करनी होती है तो डुमरी के खलिहानों और खेतो ,नदियों में वो में  विहार करने लग जाते हैं । वो खुद कहते हैं  कि मैं सघन बिंबों के लिए मैं गाँव लौट जाता हूँ  ((रामदरश मिश्र ; व्यक्ति और अभिव्यक्ति ) ।  नागार्जुन ,केदार की भांति रामदरश मिश्र जी भी सत्ता से टकराते हैं । दुष्यंत कुमार की तरह हीं वो भी केवल हंगामा खड़ा करने वाले साहित्यकार नहीं बल्कि सूरत बदलने की लड़ाई वाले साहित्यकार हैं  कुर्सी कविता केवल चिल्लाने वाले राजनेताओं को केंद्र में रख ककार लिखी गयी कविता हैं जहां वो सिर्फ चिल्लाने वालों के खिलाफ सख्त असहमति दर्ज कराते हैं । उनकी कविता ईश्वर में कबीर की सी चिंता है, कविता वाणी विहार में नागार्जुन की तरह संवाद करते हैं  (चंदु मैंने .....देखा ) - प्रिय सुधाकर/क्या विडम्बना है कि/तुम्हारा घर भी बेच दिया गया/बाज़ार के हाथ/अब न आँगन रहा/न उसमें झूमते पेड़-पौधों की हँसी/न चिड़ियों की चहक/न वहाँ तैरता ऋतुओं का संगीत/अब वहाँ किताबों के पन्नों की नहीं/रंग-बिरंगे कपड़ों की सरसराहट है/अब वहाँ कवियों के/मानवीय भाव-स्वरों की/लहरियाँ नहीं गूँजतीं/अब तो वहाँ/लेन-देन वाली बाज़ारू बोलियों की/ बजबजाहट है।  संवाद शैली में लिखी गयी ये कविता फैलते बाज़ार और लोगों के सिमटते संसार की कहानी है । उनके समूचे साहित्य का केंद्र बिन्दु है समाज और उसकी गतिविधियां जिस पर उनकी पेनी निगाह है । आज के नकली सिद्धांतों के दौर में जब चौतरफा  लोकतन्त्र की हत्या हो रही है, राजननैतिक कार्यकर्ता एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं तो रामदरश जी की कविता वह आदमी, आह्वान करती है कि मनुष्य को इस सिद्धांतों की गुटबाजी छोड़ कर मानव बने रहने की जरूरत है -  वह आदमी  है सुख-दुख के स्पंदनों से भरा/किसी भी दल के सिद्धांतों का पुतला नहीं/सिद्धांत तो उसके अनुभव में बहते हैं/इसलिए वह हर अच्छाई के प्रति/अपने को खुला रखता है/जहाँ से भी मानवीय आवाज़ उसे पुकारती है/उसका हो लेता है


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